विनायक दामोदर सावरकर (BIOGRAPHY OF SAVARKAR)
हिन्दी, हिन्दू, हिंदुस्तान, नहीं होगा पाकिस्तान।
इस उक्ति या ध्येय वाक्य की प्रासंगिकता जानने से पहले इसके मायने जानना जरूरी है। यह वाक्य किसी भी प्रकार से अलग मुस्लिम राष्ट्र या पाकिस्तान होने का विरोधी नहीं था। बल्कि भारत भूमि को चिरकालिक हिंदू राष्ट्र बनाए रखने की कवायद थी। यह नारा, ध्येय वाक्य था, वीर सावरकर और उनके हिंदू महासभा के अनुषांगिकों का।
जब जब केन्द्र में राईट विंग या यूं कहें कि संघ पोषित सरकारें होती है, तब तब सावरकर और हिंदूत्व के झंडे के नीचे खड़े होने वालों का जमावड़ा लगने लगता है। इसकी शुरुआत होती है, सदी के शुरुआती दौर में, जब अटल सरकार ने संसद में सावरकर तस्वीर लगवाई थी।
2014 में जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए, तब उन्होंने ने अपने लोकसभा के दूसरे ही दिन सावरकर को याद करते हुए उन्हें सदन में विनयांजलि दी। तब से अब तक कई बार भाजपा सरकार, सावरकर के नाम चर्चा का मुद्दा बना चुकी है। हालांकि सत्तारुढ़ दल से ज्यादा पूछ- परख सावरकर को विपक्ष से मिली है। विपक्षी दल गाहे बाहें सावरकर को निशाने पर लेते ही रहते हैं।
सावरकर को ताजातरीन चर्चा में लाने का श्रेय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को जाता है। उन्होंने 12 अक्टूबर को दिल्ली के अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में उदय माहुरकर और चिरायु पंडित की किताब ‘वीर सावरकर: हू कुड हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन’ के विमोचन कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहन भागवत की उपस्थिति में कहा कि ‘जब तक शेर अपना इतिहास खुद नहीं लिखेंगे, तब तक शिकारियों की गाथाएं गाई जाती रहेंगी।’
उनका आशय था कि एक खास वर्ग द्वारा सावरकर को लेकर भ्रम की स्थिति पैदा की जा रही है। उन्होंने यहां तक कहा कि वह गांधी ही थे जिन्होंने सावरकर को माफीनामा लिखने के लिए कहा था।
अपने इसी बयान को लेकर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सावरकर पिछले कुछ दिनों से चर्चा का मुद्दा बने हुए थे। इस बयान में कहा तक सच्चाई है। इसका परीक्षण करने के लिए हमें सावरकर के जीवन यात्रा से गुजरना होगा।
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 भी 1883 को महाराष्ट्र के भगूर में हुआ। इनके माता-पिता, इनकी छोटी उम्र में चल बसे। बचपन से जानने लायक उभरी उभरी बातें ये रही कि इन्होंने अपने स्कूली दिनों में क्रांतिकारी विचारों को आकार देते हुए, "मित्र मेला" नामक संगठन बनाया।
ऐसा इतिहास कहता है कि जबसे इन्होंने होश संभाला तब से यह उग्रवादी विचारधारा से प्रेरित थे। जिसका प्रमाण यह कला संकाय में स्नातक होने के तक बीच-बीच में देते रहे। इन्होंने पुणे के बहुचर्चित फर्ग्यूसन कॉलेज से BA की योग्यता हासिल की। हालांकि उन्हें अंतिम वर्ष में स्वदेशी आंदोलन के समर्थन में उत्पात मचाने के आरोप में अन्य कई साथियों के साथ निष्कासित कर दिया गया।
इसी बीच 1904 में इन्होंने "अभिनव भारत" नामक एक और संगठन का निर्माण किया। जिसमें युवाओं को प्रचुरता से जगह दी गई।
इसके बाद विनायक सावरकर कानून की योग्यता हासिल करने लंदन चले गए। 1906 में सावरकर लंदन के इंडिया हाउस में रहते थे। यहीं उनकी पहली मुलाकात गांधी से हुई। जो उन दिनों महात्मा नहीं थे बल्कि एक साधारण बैरिस्टर की हैसियत रखते थे। गांधी उन दिनों अफ्रीका में रहा करते थे, और गिरमिटिया मजदूरों के हित में कार्य कर रहे थे। इन्हीं के हालातों तथा अफ्रीका में अंग्रेजों की तानाशाही पर ध्यान आकृष्ट करवाना उनकी लंदन यात्रा का उद्देश्य था।
जब गांधी, सावरकर से मिले, तो सावरकर ने उनके लिए मांसाहारी भोजन परोसा। चूंकि गांधी अपनी मां से आजीवन शाकाहारी रहने के वचनबद्ध थे, सो उन्होंने भोजन करने से मना कर दिया। तब सावरकर ने अंग्रेजी में एक वाक्य कहा जिसके मायने थे कि "कोई बेवकूफ ही होगा, जो बिना जानवरीय प्रोटीन के अंग्रेजों से लड़ने का प्रयास करेगा। " इतिहास इसे गांधी-सावरकर संबंधों की पहली कड़वाहट के रूप में देखते हैं।
1909 का वर्ष सावरकर के जीवन के लिए दो मायनों में महत्वपूर्ण रहा। अव्वल तो इसी वर्ष सावरकर ने अपनी पुस्तक The First War of 1857 को अंग्रेजों की नजर से बचाकर प्रकाशित करवाया। इतिहासकार मानते हैं कि इस पुस्तक का ही प्रभाव रहा कि अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति को पहला स्वतंत्रता संग्राम माना। इससे पहले तक 1857 आंदोलन को मात्र सैनिक विद्रोह के रूप में देखा जाता था।
1909 में ही सावरकर के संगठन " अभिनव भारत" के सदस्य रहे मोहन लाल ढींगरा विलियम हट कर्जन की हत्या कर दी। इस घटना के साथ ही सावरकर संदेह के घेरे में आ गए।
1910 में कुछ उग्रवादी क्रांतिकारियों ने नासिक के कलेक्टर एम टी जैक्सन की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस केस में 30 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई। जिनमें सावरकर भी शामिल थे। इन पर आरोप था कि हत्या में प्रयुक्त बंदूक को इन्होंने ही लंदन से भेजा था।
सावरकर के अब तक के जीवन में इतिहासकार उन्हें Romantic Revolutionary के रूप में देखते हैं। यहां से सावरकर के जीवन का दूसरा चरण शुरू होता है।
1910 में सावरकर को लंदन से गिरफ्तार कर लिया जाता है और भारत लाया जाता है। रास्ते में वह जहाज के शौचालय से भागने का प्रयास भी करते हैं। जिसमें वे असफल रहते हैं। इसके बाद सावरकर को दो मामलों में 25-25 साल के आजीवन कारावास की सजा सुना कर पोर्टब्लेयर के सैल्यूलर जेल, जिसे काला पानी कहा जाता था, में डाल दिया जाता है।
इसके कुछ समय बाद ही सावरकर पहली बार 1911 में सावरकर अंग्रेजी सरकार के सामने दया याचिका लगाकर उनकी सजा को माफ करने की अर्जी दाखिल करते हैं। जिसे ठुकरा दिया जाता है। इसके बाद 1913, 1917 लिखी अर्जी को भी ठुकरा दिया जाता है। इसके अलावा यह भी उल्लेख मिलता है कि उनके परिवार द्वारा भी अंग्रेजों के सामने दया याचिका प्रस्तुत की गईं।
यहां जानने लायक बात यह है कि गांधी जी स्थायी निवासी के तौर पर 1915 में भारत लौटे थे। 1906 की लंदन इंडिया हाउस की मुलाकात के बाद गांधी और सावरकर की यात्रा का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है। ऐसे में गांधी की सलाह पर सावरकर के माफीनामे की बात पूर्णतः खारिज हो जाती है।
इसके अलावा सावरकर के भाई नारायण राव को गांधी जी के लिखे जिस पत्र का उल्लेख हाल ही में आदरणीय रक्षामंत्री ने किया। वह जनवरी 1920 में नारायण राव के पत्र के जबाव में ही लिखा गया था। जिसमें नारायण राव ने सावरकर के गिरते स्वास्थ्य पर प्रकाश डालते हुए, गांधीजी से आग्रह किया था कि वे अंग्रेजी सरकार से सावरकर को रिहा करने की अपील करें।
जिसके प्रत्युत्तर में उन्होंने दया याचिका दायर करने की सलाह दी थी। इसी के बाद ही गांधी जी मई 1920 के यंग इंडिया के अंक में सावरकर बंधु की रिहाई की मांग उठाते हैं।
आगे बढ़ते हैं, आखिरकार 1924 में अंग्रेजी सरकार, सावरकर की सजा माफ कर देती है। जेल से छूटने के बाद सावरकर के अंदर का पहले वाला क्रांतिकारी कहीं पीछे छूट जाता है। जिसकी बड़ी वजह उनकी रिहाई के बदले अंग्रेजी सरकार द्वारा रखी गईं दो शर्तें बनतीं हैं।
जिसमें पहली शर्त थी कि वे रिहाई के बाद किसी भी राजनीतिक गतिविधि का हिस्सा नहीं बनेंगे। (एक सीमित बैन) और दूसरी कि वे बिना रत्नागिरी कलेक्टर की अनुमति के यात्रा नहीं कर सकेंगे। इसके अलावा सावरकर वायसराय Linlithgow को संकल्प पत्र भी सौंपते हैं। जिसमें वे स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि " I spent my rest of life opposite Ghandhi, Congress and Muslims. " इसके एवज में सावरकर को 60 रूपये प्रतिमाह पेंशन भी दी जाती थी।
1937 में सावरकर का बैन समाप्त हो जाता है। वह इसी वर्ष हिंदू महासभा के अध्यक्ष भी बनाए जाते हैं। यहां से सावरकर एक प्रखर हिन्दू के रूप में उभरते हैं। 1923 में वे एक किताब लिखते हैं Essentials of Hindutva, जो 1928 में Hindutva, Who is Hindu के रूप में पुनः प्रकाशित होती है। जिसमें सावरकर बताते हैं कि कौन हिंदू हैं? और हिंदू राष्ट्र कैसा होगा? उन्होंने भारत हिंदू राष्ट्र, जातीयता, पूरे देश में एक भाषा जैसे विचार दिए। इसके अलावा सावरकर यह भी कहते हैं कि दुनिया के समस्त धर्मों का उदय हिंदू धर्म से हुआ है। वह गौ पूजन का बहिष्कार करते थे।
सावरकर की हिंदू महासभा ने 1937 में हुए चुनावों में हिस्सा लिया। परिणामों के बाद हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग साथ देश के कुछ हिस्सों में गठबंधन की सरकार भी बनाई।
सावरकर Two nation theory के समर्थक थे उनका मानना मुस्लिमों के अलग राष्ट्र निर्माण जरुरी है। सावरकर ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के बारे में कहा था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता की आवश्यकता नहीं है। अंग्रेज सरकार भारत की हितैषी है। सावरकर ने गांधी के "भारत छोड़ो आंदोलन" और अंबेडकर के संविधान का भी बहिष्कार किया। इसके बदले अपने अलग संविधान की संकल्पना गढ़ी।
30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी। गोडसे संघ से जुड़े हुए थे इसलिए संघ पर देशभर में पाबंदी लगा दी गई। इसके अलावा की कुछ लोगों को साजिश में शामिल होने के संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया गया। जिनमें सावरकर का नाम भी शामिल था। हालांकि बाद में सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा कर दिया गया। लेकिन बाद जब गांधी हत्याकांड की जांच के लिए कपूर कमीशन बैठा तो, उसका सावरकर पर संदेह बरकरार रहा।
26 फरवरी 1966 को सावरकर की लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। उनकी याद में तत्कालीन इंदिरा सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया था।
सावरकर को लेकर अक्सर विचार उठता है कि देश उनको लेकर एक से अधिक हिस्सों में क्यों बंट जाता है। जानकार मानते हैं कि इसका सबसे बड़ा कारण सावरकर की प्रखर हिंदू वाली विचारधारा है। लेकिन मात्र विचारधारा नाम किसी का विरोध नहीं किया जा सकता। क्यूंकि भारत में ऐसे कई क्रांतिकारी हुए हैं जो मात्र एक विचारधारा के पैरोकार थे। लेकिन उन सब की स्थिति सावरकर से अलग है।
सावरकर की छवि को ठेस पहुंचाता है उनके नाम का अतिवादी राजनीतिक प्रयोग। दरअसल भारत में जब तक कांग्रेस की सरकार रही तब उसने सावरकर की निंदा तो नहीं कि लेकिन उनके जीवन के पहले हिस्से को जिसमें उन्होनें क्रांतिकारी आंदोलनों मेें सहभागिता की, उसे दबाकर रखा गया। जब भारत में संघ पोषित सरकारों का दौर आया तो उन्होनें मात्र एक हार्ड हिंदुत्व कार्ड के तौर पर सावरकर का प्रयोग किया। उनके पहले स्वतंत्रता संग्राम के प्रति योगदान आज भी प्रकाश में नहीं लाया जाता। इसीलिए देश का वर्ग उन्हें अंग्रेजों का एंजेट मानता जबकि दूसरा हिंदुओं का मसीहा। उन्हें क्रांतिकारी कहने में हर किसी को परहेज है।
- SATYAM SINGHAI
--संदर्भ--
1. BBC HINDI
2. JANSATTA
4.BRUT
7. DHRUV RATHEE
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